
मेजर शैतान सिंह भाटी की पोती रश्मि सिंह और शैतान सिंह भाटी की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर।
‘120 बहादुर’ की रिलीज के बाद से ही मेजर शैतान सिंह भाटी की चर्चा जोर-शोर से हो रही है। फिल्म में उनके पराक्रम और साहस की कहानी दिखाई गई है, लेकिन असल जिंदगी में वो कैसे थे और उनके परिवार को उनकी मौत के बाद किस दौर से गुजरना पड़ा, एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के जरिए हमने ये जानने की हमने एक छोटी कोशिश की है। यह बातचीत सिर्फ एक शहीद की विरासत के बारे में नहीं, बल्कि उस विरासत को जी रही एक पूरी पीढ़ी की भावनाओं, संघर्षों और गर्व की कहानी है। परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतान सिंह भाटी 1962 के भारत चीन युद्ध के अप्रतिम नायक की शौर्यगाथा देश जानता है, लेकिन उनके पीछे छूटे परिवार के साहस, उनकी भावनाओं और उस अमिट दर्द को बहुत कम लोग समझ पाए हैं।
इस विशेष इंटरव्यू में उनकी पोती रश्मि सिंह ने पहली बार खुलकर बताया कि दादोसा की शहादत ने परिवार की किस्मत कैसे बदली, एक युवा युद्ध-विधवा ने किस हौसले से घर संभाला और यह विरासत आज उनकी पीढ़ी को किस दिशा में ले जा रही है। यह इंटरव्यू एक शहीद परिवार की आंखों से देखी गई सच्चाई, गर्व और अदम्य शक्ति का जीवंत दस्तावेज है।
- 1. मेजर शैतान सिंह भाटी का आपके जीवन पर कितना प्रभाव है?
उत्तर- मेजर शैतान सिंह जी दादोसा हुकुम का प्रभाव हमारे जीवन में सिर्फ पारिवारिक नहीं, बल्कि नैतिक और भावनात्मक आधार की तरह है। बचपन से ही उनकी वीरता, कर्तव्य–निष्ठा और देश के लिए चरम बलिदान की कहानियां सुनकर बड़ा होना हमें लगातार यह याद दिलाता रहा कि जीवन में उद्देश्य केवल अपने लिए नहीं, बल्कि किसी बड़े सरोकार के लिए होना चाहिए। उनकी विरासत ने हमें दृढ़ता, अनुशासन और सच्चाई के रास्ते पर चलना सिखाया है ।

जब शैतान सिंह भाटी का पार्थिव शरीर पहुंचा उनके गांव।
- 2. मेजर शैतान सिंह भाटी का जाना उस दौर में परिवार के लिए कितना बड़ा आघात था, खास तौर पर उनकी पत्नी और बेटे के लिए?
उत्तर- दादोसा के देहांत के बाद यह लगभग 55 वर्षों की लंबी, कठिन और साहसी यात्रा थी जिसे दादीसा ने अकेले संबल बनकर तय किया। उन दिनों में एक युवा युद्ध–विधवा का जीवन सिर्फ व्यक्तिगत शोक नहीं था, वह सामाजिक नियमों, आर्थिक असुरक्षाओं और अनकही उम्मीदों से जूझने का एक लंबा संघर्ष था। उस समय की सांस्कृतिक मान्यताओं से बंधे हुए समाज में ‘विधवा’ होने का बोझ आसान नहीं था। उन दिनों समाज एक युद्ध विधवा को सम्मान तो देता पर उसे स्वतंत्रता नहीं देता था। मेजर साहिब की शहादत के बाद इन सबके बीच दादीसा घर की धुरी भी थी और घर की ढाल भी। वह सिर पर घूंघट रखकर, अपने पुत्र और अपने पति की विरासत दोनों को एक साथ संभालती रही।
ऐसी त्रासदी ने उनके बेटे को समय से पहले परिपक्व बना दे। एक मासूम 15 साल का दिल अचानक जीवन की कठोरताओं से परिचित हो गया। समय के हालात ऐसे थे कि उन्हें अपनी पढ़ाई बदलनी पड़ी और शहर की जगह गांव में ही रुककर अपनी मां का सहारा बनना पड़ा। उन्हें न सिर्फ घर संभालने में उनका साथ देना था, बल्कि जमीन-जायदाद, खेत-खलिहान और परिवार की जिम्मेदारियों को भी समझना पड़ा जो उस उम्र के बच्चे के लिए एक बहुत बड़ा बोझ था।
- 3. मेजर शैतान सिंह भाटी के निधन के बाद किन चुनौतियों से परिवार को गुजरना पड़ा?
उत्तर- उनके के निधन के बाद परिवार को अनेक चुनौतियों से गुजरना पड़ा। उस दौर में एक शहीद परिवार के लिए सुविधाएं आज जितनी व्यवस्थित नहीं थीं। दादीसा पर अचानक पूरा घर, जमीन-जायदाद के कार्य और एक किशोर बेटे की परवरिश की जिम्मेदारी आ गई। वित्तीय अनिश्चितता भी एक बड़ी चुनौती थी, कैसे घर चलेगा, कैसे शिक्षा होगी, और आगे जीवन किस दिशा में जाएगा इन सवालों का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं था। दादीसा को अकेले ही सामाजिक दबाव, जिम्मेदारियों और रोजमर्रा की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। एक युवा, विधवा माँ के रूप में उन्होंने अपने बेटे को अनुशासन, दृढ़ता और अपने पिता के आदर्शों से जोड़कर पाला। उस समय की यह आर्थिक, भावनात्मक और सामाजिक चुनौतियां बहुत बड़ी थीं पर परिवार ने इन्हें साहस और आत्मसम्मान के साथ पार किया। आज हम समझते हैं कि मेजर साहब की शहादत जितनी महान थी, उतना ही महान संघर्ष और धैर्य उस परिवार का था जिसने यह सब झेला।
- 4. मेजर शैतान सिंह भाटी के आखिरी खत में क्या लिखा था और उसे पढ़ने के बाद आपकी दादी का रिएक्शन था?
उत्तर- वह उनका आखिरी पत्र था, जो उन्होंने अपने अंतिम ऑपरेशन से कुछ समय पहले भेजा था एक ऐसा समय जब कई हफ्तों से घर से कोई संपर्क नहीं हो पाया था। दादीसा बताया करती थीं कि उस खत में उन्होंने बस इतना लिखा था कि हालात ठीक होते ही जल्द घर आएँगे। उनके शब्दों में सहज सी खुशी थी, जैसे लंबे अंतराल के बाद अपने लोगों तक पहुंचने की उम्मीद फिर जाग उठी हो। लगातार दो दिपावली बिना घर लौटे बीत चुकी थीं, इसलिए यह आख़िरी खत उनके लिए और भी ज्यादा कीमती बन गया था एक उम्मीद की तरह जिसे वे दिल से पकड़े रहीं। कोई भारी-भरकम बातें नहीं थीं, बस एक सैनिक का अपने घर की ओर खिंचता मन।

जब मेजर शैतान सिंह भाटी की पत्नी को मिला उनका आखिरी पैगाम।
दादीसा कहा करती थीं कि वह खत पढ़कर उनके चेहरे पर बहुत समय बाद एक सुकून आया था। उनकी आंखों में एक हल्की-सी चमक थी, यह जानकर कि वे सुरक्षित हैं और जल्द ही संपर्क करेंगे। उस पल ने उन्हें स्थिर और आश्वस्त किया था। आज सोचते हैं तो लगता है कि वह खत सिर्फ एक संदेश नहीं था वह दादीसा की यादों में आखिरी बार जगी उम्मीद था, जो बाद में उनकी सबसे भावुक स्मृति बन गया।
- 5. बेहद कम उम्र में पति को खोना दिल चीरने जैसा होता है, शैतान जी कहानी तो पर्दे पर दिखी, लेकिन शगुन जी की भावनात्मक कहानी लोगों तक अब भी नहीं पहुंची है, एक पत्नी के रूप में उन्हें क्या-क्या फेस करना पड़ा?
उत्तर- एक पत्नी के रूप में उन्होंने जिन चुनौतियों का सामना किया, वे शब्दों में बयां करना आसान नहीं है। अपने जीवनसाथी को खोने के गहरे सदमे ने एक पल में उनकी पूरी दुनिया बदल डाली और जिस भविष्य की कल्पना की थी, वह अचानक अधूरा रह गया। इसके बाद एक युवा, अकेली माँ के रूप में उन्हें यह डर सताता रहा कि वे अपने किशोर बेटे को कैसे संभालेंगी, कैसे उसका भविष्य सुरक्षित करेंगी। सामाजिक दबाव भी कम नहीं था, लोगों की बातें, ज़िम्मेदारियों का बोझ, और एक शहीद की पत्नी होने का गर्व भी, जिसका भार भी उतना ही बड़ा था जितना सम्मान। आर्थिक अनिश्चितता, घर-परिवार के फैसलों की जिम्मेदारी, और लगातार अपने मन को मजबूत रखने की कोशिश,ये सब उन्होंने अकेले झेला। लेकिन दादीसा ने कभी हार नहीं मानी। उन्होंने अपने दुःख को अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया। उन्होंने अपने बेटे को इतनी दृढ़ता से पाला कि वे आज भी अपने पिता के आदर्शों और नैतिक मूल्यों पर अडिग हैं। दादीसा की कहानी त्याग, साहस और अदम्य शक्ति की कहानी है, एक ऐसी कहानी जो पर्दे पर नहीं आई, लेकिन हमारे परिवार की रीढ़ बनकर आज भी हमें प्रेरित करती है।
- 6. कई रिपोर्ट्स दावा करती हैं कि मेजर शैतान सिंह भाटी की पेशन को लेकर भी झनझट बना रहा, क्या उस दौर की कांग्रेस सरकार की ओर से कुछ लापरवाहियां हुई थीं?
उत्तर- युद्ध के तुरंत बाद का वह समय प्रशासनिक रूप से अत्यंत चुनौतीपूर्ण था। देश 1962 के सदमे से उभर रहा था, नीतियां विकसित हो रही थीं और सैन्य पेंशन से संबंधित कई प्रक्रियाएँ अभी व्यवस्थित रूप से स्थापित नहीं हो पाई थीं। इसी कारण शहीद परिवारों के मामलों में कागज़ी देरी, भ्रम और समन्वय की कमी जैसी स्थिति अक्सर देखने को मिलती थी। इसे किसी एक राजनीतिक नेतृत्व की जिम्मेदारी कहना उचित नहीं होगा। अधिक सटीक यह है कि यह उस दौर की प्रशासनिक संरचना की सीमाओं और प्रक्रियागत जटिलताओं का परिणाम था।

टीम के साथ शैतान सिंह भाटी।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतान सिंह भाटी के सर्वोच्च बलिदान के बावजूद, उनके परिवार को ‘स्पेशल’ या ‘लिबरलाइज्ड’ पेंशन के बजाय केवल ‘नॉर्मल फैमिली पेंशन’ (लगभग 30% वेतन) प्रदान की गई। 1963 में दी गई ग्रेच्युटी राशि बाद में पेंशन से समायोजित कर ली गई, और कई वर्षों तक पुनरीक्षण व दस्तावेज़ी प्रक्रियाएँ लंबित रहीं। इन कारणों से परिवार को आर्थिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कुल मिलाकर यह पूरा घटनाक्रम उस समय की प्रणालीगत चुनौतियों को दर्शाता है, जिसके कारण परिवार को लंबे समय तक इस स्थिति से गुजरना पड़ा। l
- 7. शैतान सिंह भाटी जी से जुड़ा दिलेरी का ऐसा किस्सा, जिसे आपकी दादी या पिता ने साझा किया हो?
उत्तर- हमारे दादीसा से सुनी हुई एक बात आज भी रोंगटे खड़े कर देती है। उन दिनों गांव में पशुओं के झुंड ही लोगों की सबसे कीमती पूँजी होते थे। एक रात मवेशी चोरों के गिरोह ने गांव पर धावा बोल दिया। गांव में अफरा-तफरी मच गई लेकिन दादोस एक पल गंवाए बाहर निकल आए। कहते हैं, रणभूमि में उनकी टैक्टिकल समझ जितनी तेज़ थी, उतनी ही स्पष्टता उनके भीतर बचपन से थी। उन्होंने तुरंत गांववालों को इकट्ठा किया, इलाके के रास्तों, पहाड़ियों और अंधेरे का इस्तेमाल कैसे करना है, एक-एक बात समझाई। बस साहस, रणनीति और गाँव वालों के भरोसे के सहारे उन्होंने मवेशी चोरों को ऐसे घेरा कि पूरा झुंड सुरक्षित बच निकला। उस रात सिर्फ मवेशी नहीं बचे, गांव का आत्मविश्वास भी बचा। लोग आज भी कहते हैं वो फौजी बनने से पहले ही फौज थे।
- 8. वॉर फील्ड में मेजर शैतान सिंह भाटी कैसे थे, ये तो फिल्म में देखने को मिला, लेकिन पर्सनल लाइफ में वो कैसे शख्स थे?
उत्तर- वॉर फील्ड में मेजर शैतान सिंह भाटी को दुनिया ने एक वीर, अडिग और रणभूमि में अचल खड़े रहने वाले योद्धा के रूप में देखा। लेकिन घर की चौखट के भीतर वे बिल्कुल अलग ही रूप में दिखाई देते थे। वे एक शानदार फ़ुटबॉल खिलाड़ी थे, अनुशासन, समर्पण और टीम के प्रति जिम्मेदारी उनके स्वभाव में रची-बसी थी। लेकिन खेल से भी बढ़कर लोग उनकी उस नरमी, उस गरमाहट को याद करते हैं जो उनके व्यक्तित्व की सबसे खूबसूरत पहचान थी।

शैतान सिंह भाटी की पत्नी के साथ जवाहर लाल नेहरू।
स्वभाव से इतने शांत कि उनकी उपस्थिति ही घर में सुकून भर देती थी… उतने ही हंसमुख कि उनकी मुस्कान के साथ माहौल अपने-आप हल्का हो जाता था। वे हर किसी से सम्मान और प्रेम से बात करते, चाहे परिवार हो, गाँव के लोग हों या उनसे पहली बार मिलने वाला कोई अजनबी। मिलनसार और हर किसी को बराबरी की नजर से देखने वाले इंसान थे। आज जब हम उनकी शौर्यगाथा को बड़े पर्दे पर देखते हैं, तो महसूस होता है कि रणभूमि में दिखी उनकी वीरता, दरअसल उसी गहरी इंसानियत, उसी बड़े दिल और उसी प्रेम से जन्मी थी जो वे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में जीते थे। युद्ध का नायक बनने से पहले वे एक अद्भुत इंसान थे… और शायद इसलिए ही युद्ध में भी अमर हो गए
- 9. क्या आपको लगता है कि 120 बहादुर में फरहान अख्तर ने उनके किरदार के साथ पूरी तरह न्याय किया?
उत्तर- हम यह मानते हैं कि मेजर शैतान सिंह भाटी का व्यक्तित्व और उनकी वीरता इतने विशाल थे कि उन्हें पूरी तरह किसी भी अभिनेता या दो घंटे की फिल्म में समाना संभव नहीं है। उनका साहस, उनकी नेतृत्व क्षमता और उनका चरित्र वास्तव में ‘larger than life’ था, लेकिन हम यह भी देखते हैं कि 120 बहादुर में फरहान अख्तर ने उनके किरदार को निभाने के लिए पूरी ईमानदारी और पूरी कोशिश की। उन्होंने मेजर साहब की शांति, अनुशासन और उनके कर्तव्य के प्रति अटूट समर्पण को जितना संभव हो सका, उतनी संवेदनशीलता के साथ दर्शाया। आखिरकार दो घंटे की फिल्म में एक महानायक का सम्पूर्ण जीवन दिखाना सीमित होता है पर फरहान ने अपने हिस्से का काम पूरी निष्ठा के साथ किया और इसके लिए हम उनके प्रयास का सम्मान करते हैं।
- 10. जब पहली बार आपके पिता ने मेजर साहब की कहानी को बड़े पर्दे पर देखा तो उनका और आप तीनों बहनों का रिएक्शन कैसा था?
उत्तर- जब पहली बार हमारे पिता ने मेजर शैतान सिंह जी की कहानी को बड़े पर्दे पर देखा, तो वह क्षण हमारे परिवार के लिए शब्दों से परे था। पिता जी पूरे समय बेहद शांत बैठे रहे, लेकिन उनकी आंखों में गर्व, दर्द और यादों का समंदर एक साथ उमड़ रहा था। अपने पिता की वीरता को इस तरह जीवंत होते देखना उनके लिए गर्व का पल था और भीतर फिर कही से उस कमी को महसूस करने का भी। हम तीनों बहनों के लिए यह अनुभव बिल्कुल अलग था हमने अपने दादा को कभी देखा नहीं सिर्फ उनके बारे में सुना ही था, लेकिन फिल्म ने हमें उनके और करीब पहुँचा दिया। स्क्रीन पर हर दृश्य के साथ ऐसा लगा जैसे हमने उन्हें पहली बार ‘देखा’, महसूस किया, और उनकी कहानी को सचमुच समझा।
हम सबकी आंखें भर आईं, पर दिल गर्व से भरा था। एक ओर रोंगटे खड़े कर देने वाला साहस था, दूसरी ओर परिवार के इतिहास को इतने सम्मान के साथ सामने देख पाने की गहरी भावनात्मक अनुभूति। हमारे लिए वह सिर्फ एक फिल्म नहीं थी, वह हमारे परिवार की आत्मा, हमारे दादा की विरासत और पिता जी के जीवन का सबसे अहम अध्याय बड़े पर्दे पर अमर होते देखने का क्षण था।
- 11. शैतान सिंह जी की कोई ऐसी चीज जो आपके बेहद करीब हो और आप उसे अपने पास रखना पसंद करती हों?
उत्तर- हमारे लिए मेजर शैतान सिंह जी की सबसे कीमती निशानियां वे कुछ निजी वस्तुएं हैं, जिन्हें हम आज भी अपने पास संभालकर रखते हैं। दादीजी के पास एक छोटा-सा बॉक्स है जिसमें उनका दिया हुआ विक्टोरियन सिल्वर कंघी, ब्रश और शीशे का सेट रखा है, ये वे चीजें हैं जिन्हें उन्होंने अपने हाथों से चुना और दादीजी को उपहार में दिया था। उस बॉक्स को हाथ में लेते ही ऐसा लगता है जैसे समय पीछे लौट जाता है, और उनकी उपस्थिति उसी क्षण हमारे आसपास महसूस होने लगती है। हमारे पास उनकी वह कोट भी है जो हमें उनके देहावसान के बाद मिली थी। उस कोट को थामने में एक अनोखी ऊर्जा महसूस होती है, जैसे उसकी गर्माहट आज भी उनके साहस और उनके व्यक्तित्व की चमक को अपने भीतर समेटे हुए हो। इन वस्तुओं का हमारे लिए मूल्य किसी स्मृति-चिह्न से कहीं अधिक है। ये हमारे दादा की आत्मा, उनकी सरलता, और उनके प्रेम की जीवित झलकियाँ हैं। इन्हें अपने पास रखना हमें हमेशा यह एहसास दिलाता है कि वे हमारे बहुत करीब हैं, और उनकी विरासत हमारे रोजमर्रा के जीवन में भी सांस ले रही है।

मेजर शैतान सिंह भाटी की तीनों पोतियां।
- 12. आपके लिए शहीद परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतानी सिंह भाटी जी की पोती होना क्या मायने रखता है?
उत्तर- मेरे लिए शहीद परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतान सिंह जी की पोती होना सिर्फ एक पहचान नहीं, यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा सम्मान, जिम्मेदारी और प्रेरणा है। मैंने दादोसा को कभी देखा नहीं, लेकिन उनकी कहानी, उनका साहस और उनका आदर्श मेरे भीतर गहराई से रचा-बसा है। उनकी पोती होना मुझे हमेशा याद दिलाता है कि मुझे अपने जीवन में वही ईमानदारी, वही अनुशासन और वही दृढ़ता रखनी है जो उन्हें असाधारण बनाती है। यह विरासत मुझे जमीन से जोड़ती है और मुझे अपने काम जैसे फूटरी बैग के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं को सशक्त करने में एक बड़ा उद्देश्य देती है। उनकी शहादत मेरे लिए गर्व भी है और एक मौन प्रतिज्ञा भी कि जो मूल्य उन्होंने जीकर दिखाए, उन्हें आगे बढ़ाना ही हमारी पीढ़ी का कर्तव्य है। उनकी पोती होना मेरे लिए सिर्फ रिश्ते का नाम नहीं…यह मेरे जीवन की दिशा, मेरी प्रेरणा और मेरी आत्मा की पहचान है।
- 13. आखिरी सवाल- उनकी आगे की पढ़ी किस दिशा में आगे बढ़ी, प्रोफेशनल ग्राउंड पर?
उत्तर- मेजर शैतान सिंहजी की दिलेरी सिर्फ इतिहास की किताबों में नहीं, बल्कि उनकी अगली पीढ़ियों के स्वभाव में भी रची-बसी है। उनकी सबसे बड़ी पोती आज अपने गांव की निर्विरोध चुनी गई सरपंच हैं, यह अपने-आप में उस भरोसे की गवाही है जो गांव ने उनके परिवार की ईमानदारी और सेवा भाव पर रखा है। वह गांव की महिलाओं के लिए सशक्तिकरण की नई राहें खोल रही हैं ,चाहे वह ग्राम सभा में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी हो, स्वयं सहायता समूहों को मज़बूत करना हो, या फिर युवतियों को आर्थिक आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रम हों। लेकिन सबसे प्रभावशाली कदम वह था, जब उन्होंने बच्चों की शिक्षा को बदलने का संकल्प लिया। गांव में पहली बार एक ‘कंप्यूटर स्कूल’ शुरू करवाया, जहां आज सैकड़ों बच्चे डिजिटल शिक्षा से जुड़ रहे हैं। जिन बच्चों ने कभी मोबाइल तक हाथ में नहीं लिया था, आज वे बेसिक कंप्यूटर स्किल्स सीख रहे हैं, कोडिंग से परिचित हो रहे हैं और अपने छोटे से गांव से बड़े सपने देख पा रहे हैं।
ऋतु सिंह सिर्फ एक प्रतिभाशाली इंटीरियर डेकोरेटर ही नहीं, बल्कि दिल से एक समाजसेवी हैं। कला की दुनिया में उनका काम जितना सूक्ष्म और सलीकेदार है, उतनी ही गहराई उनके भीतर संवेदना की भी है। उन्होंने शहरों में सुंदर घरों को संवारा, लेकिन असली रोशनी तब फैलाई जब वह FXB NGO से जुड़ीं ,जहाँ उन्होंने AIDS अवेयरनेस, दवाई वितरण और प्रभावित परिवारों के साथ जमीनी स्तर पर काम किया। उनके सफर ने हमें सिखाया कि जीवन का असली उद्देश्य सिर्फ व्यक्तिगत उपलब्धियों का ढेर लगाना नहीं, अपने समाज और उन लोगों के प्रति कर्तव्य निभाना है
रश्मि सिंह ने अपनी राह समाज सेवा में चुनी लेकिन उसके भीतर भी वही जड़ें, वही संवेदनाएं और वही ‘समाज के लिए कुछ लौटाने’ का भाव गहराई से बसता है। फ़ूटरी बैग Foutribags की स्थापना सिर्फ एक ब्रांड बनाने के लिए नहीं हुई; यह उन गांव की महिलाओं की अदृश्य कला, संघर्ष और आत्मसम्मान को मंच देने का संकल्प था, जिन्हें दुनिया अक्सर देख ही नहीं पाती।
उसने अपने बचपन में गांव की महिलाओं को मेहनत करते, अपने परिवारों को संभालते और आत्मनिर्भर बनने के लिए जुझते देखा था। Foutribags उसी अनुभव से जन्मा एक ऐसा प्लेटफ़ॉर्म जहाँ ग्रामीण कारीगरों की कढ़ाई, उनके हाथों की मेहनत और उनके सपने आज देश-विदेश तक पहुँच रहे हैं। ब्रांड की हर पोटली सिर्फ एक फैशन ऐक्सेसरी नहीं, बल्कि किसी महिला की आशा, उसकी कमाई और उसकी गरिमा की कहानी है। उसका काम हमें बार-बार यह याद दिलाता है कि ‘empowerment’ सिर्फ बड़े भाषणों में नहीं, बल्कि रोजगार देने, कौशल सिखाने और किसी महिला को यह कहने का मौका देने में है कि मैं कर सकती हूं।
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