
इरफान खान और शफीक।
सिनेमा सिर्फ पर्दे पर दिखाई जाने वाली कहानियों का नाम नहीं, बल्कि कई बार वह इन कहानियों में काम करने वालों की असल जिंदगी को भी छू जाता है। कुछ फिल्मों की चमक कभी फीकी नहीं पड़ती, ऐसी ही एक फिल्म है ‘सलाम बॉम्बे’, जो 1988 में रिलीज हुई थी। मीरा नायर के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने मुंबई की सड़कों की कड़वी सच्चाई को 12 साल के एक बच्चे की मासूम आंखों से दुनिया के सामने रखा। उस बच्चे का नाम चापू था और उसे पर्दे पर जीवंत किया था शफीक सैयद ने, जो अपने अंदाज से लोगों का दिल जीत लिया था।
सितारों के बीच उभरा सितारा
हालांकि फिल्म में इरफान खान, नाना पाटेकर, रघुवीर यादव जैसे प्रतिभाशाली कलाकार भी थे, लेकिन असली आत्मा था चापू, एक ऐसा किरदार जिसने दर्शकों को झकझोर दिया। शफीक को इस भूमिका के लिए राष्ट्रीय बाल कलाकार पुरस्कार भी मिला। राष्ट्रपति ने उन्हें इस अवॉर्ड से नवाजा था। ऐसा लगने लगा था कि ये बच्चा अब एक बड़ा अभिनेता बनेगा और फिल्म इंडस्ट्री में नई उड़ान भरेगा, लेकिन किस्मत के पन्नों पर शायद कुछ और ही लिखा था। ऐसे में शफीक की किस्मत पलटी और वो गुमनामी के अंधेरे में न सिर्फ खोए बल्कि वो करने पर मजबूर हो गए जिसकी उन्हें चाहत भी नहीं थी।
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सिनेमा से शोहरत मिली, लेकिन मंजिल नहीं
बेंगलुरु की झुग्गियों में पले-बढ़े शफीक सैयद ने अपने दोस्तों के साथ किशोर अवस्था में मुंबई की ओर रुख किया था। फुटपाथ पर दिन गुजारे, प्लेटफॉर्म पर रातें बिताईं। यहीं उनकी मुलाकात हुई मीरा नायर से जिन्होंने उन्हें ‘सलाम बॉम्बे’ में कास्ट किया। फिल्म के दौरान उन्हें रोज 20 रुपये और वड़ा पाव लंच में मिलता था, लेकिन इस सपने की दुनिया से लौटने के बाद जिंदगी ने फिर से उन्हें हकीकत की जमीन पर उतार दिया। साल 1994 में उन्होंने एक और फिल्म ‘पतंग’ में काम किया, लेकिन इसके बाद वह फिल्म इंडस्ट्री से लगभग गायब हो गए। लौटे तो सिर्फ अपनी असली जिंदगी की ओर, जहां न कैमरा था, न स्पॉटलाइट, सिर्फ जिम्मेदारियां और संघर्ष था।
आज भी संघर्ष जारी है
आज शफीक सैयद ऑटो रिक्शा चलाते हैं। बेंगलुरु से करीब 30 किलोमीटर दूर एक छोटे कस्बे में वे अपनी पत्नी, मां, तीन बेटों और एक बेटी के साथ रहते हैं। फिल्मी दुनिया में जो उम्मीदें जगी थीं, वो अब बीते कल की बात हो गई हैं। कभी–कभी वे कन्नड़ टीवी इंडस्ट्री में छोटे प्रोजेक्ट्स के लिए कैमरे के पीछे अस्थायी काम कर लेते हैं, ताकि कुछ कुछ पैसे कमा सकें। एक पुराने इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘साल 1987 में कोई जिम्मेदारी नहीं थी, लेकिन आज मेरे कंधे पर एक पूरा परिवार है। अब फिल्मों की नहीं, रोटी की जरूरत ज्यादा है।’
‘चापू’ से ‘स्लमडॉग’ तक, एक भूली हुई याद बने शफीक
जब साल 2008 में ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ जैसी फिल्म ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय गरीबी और संघर्ष की कहानी को प्रसिद्धि दिलाई, तब कई लोगों को ‘सलाम बॉम्बे’ और उसमें काम करने वाले चापू की याद आई, लेकिन तब तक शफीक एक सामान्य नागरिक बन चुके थे, जिनकी पहचान सिर्फ उनके ऑटो की नंबर प्लेट में ही रहती है, न कि फिल्मी पोस्टर में। शफीक सैयद की कहानी सिर्फ एक भूतपूर्व बाल कलाकार की नहीं, बल्कि उस सिनेमा व्यवस्था की है, जहां कला तो सराही जाती है पर कलाकार अक्सर अकेला छोड़ दिया जाता है। कभी पर्दे पर चापू बनकर लोगों के दिलों में उतरने वाला यह बच्चा, आज भी एक बेहतर जिंदगी की तलाश में है।
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